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धारा 498A क्या है?

admin admin
April 17, 2025
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भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 498A वर्ष 1983 में भारतीय संसद द्वारा पारित की गई थी। इसका उद्देश्य था शादीशुदा महिलाओं को उनके पति या पति के रिश्तेदारों द्वारा किए गए क्रूर व्यवहार, दहेज उत्पीड़न, शारीरिक या मानसिक हिंसा से संरक्षण देना।

यह गैर-जमानती (non-bailable), संज्ञेय (cognizable) और गैर-समझौता योग्य (non-compoundable) अपराध के रूप में वर्गीकृत है।

लेकिन समय के साथ यह देखा गया है कि इस कानून का कई मामलों में दुरुपयोग हो रहा है।

धारा 498A क्या है? (What is Section 498A?)

धारा 498A के अनुसार:

“यदि कोई पति या उसके परिवार का कोई सदस्य विवाहिता महिला के साथ क्रूरता करता है – जैसे कि उसे मानसिक या शारीरिक पीड़ा देना, दहेज की मांग करना या आत्महत्या के लिए उकसाना – तो यह एक आपराधिक अपराध माना जाएगा।”


🔹 दुरुपयोग की प्रकृति (Nature of Misuse):

  • झूठे आरोप लगाकर पति और उसके पूरे परिवार को फँसाना।

  • तलाक या संपत्ति विवाद में इस धारा का इस्तेमाल “दबाव” बनाने के हथियार के रूप में करना।

  • बिना किसी जांच के तत्काल गिरफ्तारी के कारण निर्दोषों का उत्पीड़न।

  • लंबे समय तक चलने वाले केसों के चलते परिवारों का मानसिक व सामाजिक पतन।


🔹 उदाहरण (Examples):

🧾 केस 1 – दिल्ली हाईकोर्ट (2014):

एक महिला ने अपने पति, सास, ससुर और देवर पर दहेज उत्पीड़न का आरोप लगाया। पुलिस ने सभी को गिरफ्तार कर लिया। बाद में जांच में पाया गया कि महिला का उद्देश्य तलाक के बदले ज्यादा मुआवजा लेना था।

🧾 केस 2 – मुंबई केस (2017):

महिला ने अपने पति व परिवार पर झूठे आरोप लगाए। बाद में CCTV फुटेज और गवाहों के आधार पर कोर्ट ने सभी को बरी कर दिया और महिला पर झूठे मुकदमे के लिए केस चलाने का आदेश दिया।


🔹 न्यायपालिका की प्रतिक्रिया (Judiciary’s Response):

  • सुप्रीम कोर्ट (राजेश शर्मा बनाम उत्तर प्रदेश, 2017):
    कोर्ट ने कहा कि धारा 498A का “लीगल टेररिज़्म” के रूप में इस्तेमाल हो रहा है।
    न्यायालय ने निर्देश दिया कि ऐसे मामलों में फैमिली वेलफेयर कमेटी के ज़रिए प्राथमिक जांच होनी चाहिए।

  • अन्य निर्देश:

    • गिरफ्तारी से पहले जांच आवश्यक है।

    • मामले को सुलझाने की कोशिश होनी चाहिए।

    • सभी परिवारजनों को बिना कारण आरोपी न बनाया जाए।


🔹 आंकड़े (Statistics):

  • NCRB (राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो) के अनुसार, 498A के तहत हर साल लाखों केस दर्ज होते हैं।

  • 2022 की रिपोर्ट के अनुसार:

    • दर्ज मामलों में से केवल 15-20% मामलों में ही दोष सिद्धि हो पाई।

    • शेष मामलों में या तो आरोप झूठे पाए गए या सबूतों की कमी से अभियुक्त बरी हो गए।


🔹 प्रभाव (Impact):

  • निर्दोष व्यक्तियों की गिरफ्तारी से सामाजिक बदनामी और मानसिक तनाव।

  • महिलाओं के लिए बने इस कानून की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह।

  • न्यायपालिका पर बढ़ता बोझ और मुकदमों में देरी।

  • असली पीड़ित महिलाओं को न्याय मिलने में देरी, क्योंकि झूठे केस सिस्टम को जाम करते हैं।


🔹 निष्कर्ष (Conclusion):

धारा 498A एक अत्यंत आवश्यक और संवेदनशील कानून है, जो महिलाओं को उत्पीड़न से सुरक्षा देता है। लेकिन इसके दुरुपयोग की घटनाएँ इस कानून की मूल भावना को कमजोर करती हैं।

जरूरत है कि:

  • कानून के तहत सख्त प्रारंभिक जांच की व्यवस्था हो।

  • झूठे मामलों में कड़ी कार्रवाई की जाए।

  • सभी पक्षों की सुनवाई सुनिश्चित की जाए।

संतुलन ही इस कानून की सार्थकता बनाए रख सकता है।

धारा 498A क्या है? (What is Section 498A?)

धारा 498A के अनुसार:

“यदि कोई पति या उसके परिवार का कोई सदस्य विवाहिता महिला के साथ क्रूरता करता है – जैसे कि उसे मानसिक या शारीरिक पीड़ा देना, दहेज की मांग करना या आत्महत्या के लिए उकसाना – तो यह एक आपराधिक अपराध माना जाएगा।”


🔹 दुरुपयोग की प्रकृति (Nature of Misuse):

  • झूठे आरोप लगाकर पति और उसके पूरे परिवार को फँसाना।

  • तलाक या संपत्ति विवाद में इस धारा का इस्तेमाल “दबाव” बनाने के हथियार के रूप में करना।

  • बिना किसी जांच के तत्काल गिरफ्तारी के कारण निर्दोषों का उत्पीड़न।

  • लंबे समय तक चलने वाले केसों के चलते परिवारों का मानसिक व सामाजिक पतन।


🔹 उदाहरण (Examples):

🧾 केस 1 – दिल्ली हाईकोर्ट (2014):

एक महिला ने अपने पति, सास, ससुर और देवर पर दहेज उत्पीड़न का आरोप लगाया। पुलिस ने सभी को गिरफ्तार कर लिया। बाद में जांच में पाया गया कि महिला का उद्देश्य तलाक के बदले ज्यादा मुआवजा लेना था।

🧾 केस 2 – मुंबई केस (2017):

महिला ने अपने पति व परिवार पर झूठे आरोप लगाए। बाद में CCTV फुटेज और गवाहों के आधार पर कोर्ट ने सभी को बरी कर दिया और महिला पर झूठे मुकदमे के लिए केस चलाने का आदेश दिया।


🔹 न्यायपालिका की प्रतिक्रिया (Judiciary’s Response):

  • सुप्रीम कोर्ट (राजेश शर्मा बनाम उत्तर प्रदेश, 2017):
    कोर्ट ने कहा कि धारा 498A का “लीगल टेररिज़्म” के रूप में इस्तेमाल हो रहा है।
    न्यायालय ने निर्देश दिया कि ऐसे मामलों में फैमिली वेलफेयर कमेटी के ज़रिए प्राथमिक जांच होनी चाहिए।

  • अन्य निर्देश:

    • गिरफ्तारी से पहले जांच आवश्यक है।

    • मामले को सुलझाने की कोशिश होनी चाहिए।

    • सभी परिवारजनों को बिना कारण आरोपी न बनाया जाए।


🔹 आंकड़े (Statistics):

  • NCRB (राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो) के अनुसार, 498A के तहत हर साल लाखों केस दर्ज होते हैं।

  • 2022 की रिपोर्ट के अनुसार:

    • दर्ज मामलों में से केवल 15-20% मामलों में ही दोष सिद्धि हो पाई।

    • शेष मामलों में या तो आरोप झूठे पाए गए या सबूतों की कमी से अभियुक्त बरी हो गए।


🔹 प्रभाव (Impact):

  • निर्दोष व्यक्तियों की गिरफ्तारी से सामाजिक बदनामी और मानसिक तनाव।

  • महिलाओं के लिए बने इस कानून की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह।

  • न्यायपालिका पर बढ़ता बोझ और मुकदमों में देरी।

  • असली पीड़ित महिलाओं को न्याय मिलने में देरी, क्योंकि झूठे केस सिस्टम को जाम करते हैं।


🔹 निष्कर्ष (Conclusion):

धारा 498A एक अत्यंत आवश्यक और संवेदनशील कानून है, जो महिलाओं को उत्पीड़न से सुरक्षा देता है। लेकिन इसके दुरुपयोग की घटनाएँ इस कानून की मूल भावना को कमजोर करती हैं।

जरूरत है कि:

  • कानून के तहत सख्त प्रारंभिक जांच की व्यवस्था हो।

  • झूठे मामलों में कड़ी कार्रवाई की जाए।

  • सभी पक्षों की सुनवाई सुनिश्चित की जाए।

संतुलन ही इस कानून की सार्थकता बनाए रख सकता है।

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